Monday, April 26, 2010

----- अक्स -----

जवां कलियों खिले फूलों और इन बहारों में तुम हो
चाँद सूरज और आसमां के सितारों में तुम हो

यूं तो देखें हैं हमनें कई हसीं चेहरे
फिर भी लेकिन एक उन हजारों में तुम हो

बरसे है जब आसमां से पानी तो कुछ लगता है यूँ
सावन की पहली बारिश की रिमझिम फुँहारों में तुम हो

तुम्हारी आँखों की झील में डूबा जाता हूँ मैं
उम्मीद ये कि इसके हर किनारों में तुम हो

तुमसे है प्यार मुझे, लो कह दिया ये राज़ तुमसे
अब तो मेरे दिल के कुछ राज़दारों में तुम हो

आग से बस इसलिये खेला करता हूँ मैं
गुमां होता है इन शोलों में, शरारों में तुम हो

शर्मों झिझक, मुस्कुराहट में, और लबों की थरथराहट में
नई दुल्हन के अनजानें हर इशारों में तुम हो

230620011930

--- यादें ---

ये चुप सी शाम मैं और मेरी तन्हाई है
क्यूं परेशां मुझे करने तेरी याद आई है

इस कदर मैनें तुझे सोचा तो नहीं था
कि ज़हन में तेरी तस्वीर उभर आई है

तेरे नाज़ुक सुर्ख लबों को सोचने भर से
ये कैसी प्यास मेरे होठों पे चली आई है

जो खयालों में करूँ बात तुझसे तो लगता है यूँ
मेरे कानों में हौले से तु कुछ बुदबुदाई है

तब से दिलो दिमाग में बजे है कोई सरगम
जब से मेरे आँगन में तुने पायल छनकाई है

मैनें तो बस नज़र भर के देखा है तुझे
फिर क्यूँ तू दुलहन सी इतना लजाई है, शर्माई है

लगता है जैसे जिस्म से आँचल तेरा लिपटता जाता है
ठंडी हवा मेरे बदन पर हल्के से जो सरसराई है

240620012120

---- अनाम -----

धीरे-धीरे चटख-चटख कर टूट रहा है कुछ
बढती जा रही है दरकन, बढती जा रही है रेखाऐं
मकड़ी के जाले की तरह फैलता जा रहा है दर्द का जाला
रिसनें लगा है बाँध, रिसनें लगी है चौंध, बढता ही जा रहा है शोर
शांत अंधेरा रीतनें सा लगा है,
तलाश की सी वासना लेने लगी है अंगड़ाइयाँ
अवांछित की अकारण तलाश,
परमाणु विखंडन सा, विचारों का झंझावात
तेज़ हवा में शाखाबद्ध, जैसे पीपल के पत्तों का फडफडाना
मानों विमुक्त होकर शून्य में खो जाने की जिजिविषा, तीव्र उत्कंठा
लोहे पर मिट्टी की चिरचिराहट से मस्तिष्क को किरचें - किरचें करती आवाज़ें
नपुंसक आवाज़ें, चिल्लाकर पुरूषत्व का झूठा स्वांग भरती आवाज़ें,
फुसलाती आवाज़ें, स्वार्थ के विष पर चाशनी सी मीठी आवाज़े,
स्वार्थ, अहं, दम्भ की मशीनों से गढी, अप्राकृतिक, असह्य आवाज़ें
विषैली स्याही से जीवन के कोरे कागज़ को विषाक्त करती आवाज़ें
मार रही है कांच के से विचारों पर हथौडे
कच्चे कांच के सच्चे विचार, शुद्ध विचार अनछुए से,
टूट कर बिखर गये हैं, बदल गये है अर्थ शब्दों के
सच, झूठ, अच्छा, बुरा, अपना-पराया, बदल गईं परीभाषाएं
इन सब में संघर्ष है, विचारों के परिभाषित होने का,
घोर संघर्ष, व्यक्त करने योग्य पर्यावरण निर्मित करने का,
मायनें नहीं रखता है सफल या असफल होना
अप्रतिम प्रेरणा है, शून्य में विलीन हो जाने की,
अथवा स्वयं ही क्ड़ीष्ण विविर हो जाने की।

030820092330

Sunday, April 25, 2010

पुनर्जागरण (Renaissance)

नमस्ते !

Hi ! 'm back.

After a long interval, I decide to restart this blog. No regrets for the absence. No reason anyways. बस यूँ ही चला गया था और ऐसे ही लौट आया।

I wrote before many more but lots of them were destroyed by myself (intentionally) and rest remains unpublished i.e. no one but only I knows about them. I wrote for myself only, as I thought that time. Now thoughts have changed. What I got, took from this world, now its my time to tell what I learnt. Doesn't matter whether it is liked or criticized. Thoughts to be shared with all. May it refines me, myself & my thoughts. Your comments and suggestions will encourage me to give better of me to you people.

Right now I'm not ready to tell all about my self, just an ordinary guy with lots of thoughts in mind. Need to get expressed. Corrections and betterment of expressing thoughts. Doesn’t love to share all of mine, but trying to be more expressive. BTW Quality should be preferred to Quantity. May it would helps me a lot and make some friends with same line of thinking as I don’t have many.