Monday, April 26, 2010

---- अनाम -----

धीरे-धीरे चटख-चटख कर टूट रहा है कुछ
बढती जा रही है दरकन, बढती जा रही है रेखाऐं
मकड़ी के जाले की तरह फैलता जा रहा है दर्द का जाला
रिसनें लगा है बाँध, रिसनें लगी है चौंध, बढता ही जा रहा है शोर
शांत अंधेरा रीतनें सा लगा है,
तलाश की सी वासना लेने लगी है अंगड़ाइयाँ
अवांछित की अकारण तलाश,
परमाणु विखंडन सा, विचारों का झंझावात
तेज़ हवा में शाखाबद्ध, जैसे पीपल के पत्तों का फडफडाना
मानों विमुक्त होकर शून्य में खो जाने की जिजिविषा, तीव्र उत्कंठा
लोहे पर मिट्टी की चिरचिराहट से मस्तिष्क को किरचें - किरचें करती आवाज़ें
नपुंसक आवाज़ें, चिल्लाकर पुरूषत्व का झूठा स्वांग भरती आवाज़ें,
फुसलाती आवाज़ें, स्वार्थ के विष पर चाशनी सी मीठी आवाज़े,
स्वार्थ, अहं, दम्भ की मशीनों से गढी, अप्राकृतिक, असह्य आवाज़ें
विषैली स्याही से जीवन के कोरे कागज़ को विषाक्त करती आवाज़ें
मार रही है कांच के से विचारों पर हथौडे
कच्चे कांच के सच्चे विचार, शुद्ध विचार अनछुए से,
टूट कर बिखर गये हैं, बदल गये है अर्थ शब्दों के
सच, झूठ, अच्छा, बुरा, अपना-पराया, बदल गईं परीभाषाएं
इन सब में संघर्ष है, विचारों के परिभाषित होने का,
घोर संघर्ष, व्यक्त करने योग्य पर्यावरण निर्मित करने का,
मायनें नहीं रखता है सफल या असफल होना
अप्रतिम प्रेरणा है, शून्य में विलीन हो जाने की,
अथवा स्वयं ही क्ड़ीष्ण विविर हो जाने की।

030820092330

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